3 जुलाई 2014

ग़ज़ल

आंख भर आए तो सैराब में सहरा देखूं
और सहरा में समंदर कोई गहरा देखूं

आईनासाज़ था या कोई फ़ुसूंगर जानां
तेरे चेहरे में बदलता मेरा चेहरा देखूं

जिस्म पर मेरे तेरा रंग बहुत सजता है
तेरी आंखों में उसे आैर भी निखरा देखूं

क्या तेरी ज़ुल्फ़ को छूकर इधर आई है हवा
इसकी आवाज़ में उठता हुआ लहरा देखूं

होंट आकाश पे रक्खूं तो दहकती है ज़मीं
जलते क़दमों में सफ़र आंखों का ठहरा देखूं

खेंच तुझको तेरे पहलू से चलूं अर्शनगर
फिर ख़ला में जो कोई टूटता तारा देखूं

मैं तो बस तेरा तलबग़ार हूं एे जान-ए-अदा
तू कहे बाद-ए-सबा तू कहे सहरा देखूं
_________________
दिलीप शाक्य

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें