24 मई 2014

ग़ज़ल

हर एक बात पे संजीदा हो रहा हूं मैं
हंसू कभी तो लगे है कि रो रहा हूं मैं

शहर की आंख खुलेगी तो अक़्स देखूंगा
बड़े सलीके से पलकें भिगो रहा हूं मैं

बताना मुझको सितारों जो उसका घर आए
अज़ल से रक़्स में दीवाना हो रहा हूं मैं

खिले हैं शाख़ पे गुन्चे कि सुर्ख़ बोसे हैं
ये किस विसाल के कोहरे में खो रहा हूं मैं

कभी वो दश्त में लौटे तो ऐ सबा कहिओ
उसी के ख़्वाब हैं, नींदों में बो रहा हूं मैं
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दिलीप शाक्य

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