कैंची से गुलाब की पत्तियॉं काटती एक औरत
हवा के जोर से खुल गयी खिड़कियों को
पलट रही है बार-बार
श्रंगार-मेज़ के आईने में झलक-झलक उठते हैं
एक चेहरे के छूटे हुए अक़्स
चेहरे में एक गुलाब गुमशुदा है
गुलाब में एक चेहरा
हिंदी कवि शमशेर बहादुर सिंह की आवाज़
आह बनकर खिंचती है सीने में
‘लौट आ ओ फूल की पंखुड़ी
फिर फूल में लग जा’
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हवा के जोर से खुल गयी खिड़कियों को
पलट रही है बार-बार
श्रंगार-मेज़ के आईने में झलक-झलक उठते हैं
एक चेहरे के छूटे हुए अक़्स
चेहरे में एक गुलाब गुमशुदा है
गुलाब में एक चेहरा
हिंदी कवि शमशेर बहादुर सिंह की आवाज़
आह बनकर खिंचती है सीने में
‘लौट आ ओ फूल की पंखुड़ी
फिर फूल में लग जा’
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