मैं इक सिरा हूं फलक का तो दूसरा है तू
कहूं तो कैसे ज़मीं से कि बस मेरा है तू
कुछ ऐसे जा कि मैं तड़पूं तेरी ही आमद को
पलट के आए तो कह दूं कि दूसरा है तू
सजी है सेज सितारों के घर में आ सूरज
सुबह से शाम तलक धूप में फिरा है तू
है उसकी जागती आंखों से शबनमी ये गुल
ऐ मेरी रात के आंसू कहां गिरा है तू
हों क्यों न बज़्म में सरगोशियां ख़मोशी की
लबों पे उसके, मग़र मेरा तज़्किरा है तू
बढ़ा कि प्यास, मय-ए-शौक़ से लबालब मैं
बहुत-बहुत हूं यहां पर ज़रा-ज़रा है तू
गुलों के खिलने की उम्मीद अब भी बाकी है
है ज़र्द बाग़ मेरा, आ अगर हरा है तू
____________________
दिलीप शाक्य
कहूं तो कैसे ज़मीं से कि बस मेरा है तू
कुछ ऐसे जा कि मैं तड़पूं तेरी ही आमद को
पलट के आए तो कह दूं कि दूसरा है तू
सजी है सेज सितारों के घर में आ सूरज
सुबह से शाम तलक धूप में फिरा है तू
है उसकी जागती आंखों से शबनमी ये गुल
ऐ मेरी रात के आंसू कहां गिरा है तू
हों क्यों न बज़्म में सरगोशियां ख़मोशी की
लबों पे उसके, मग़र मेरा तज़्किरा है तू
बढ़ा कि प्यास, मय-ए-शौक़ से लबालब मैं
बहुत-बहुत हूं यहां पर ज़रा-ज़रा है तू
गुलों के खिलने की उम्मीद अब भी बाकी है
है ज़र्द बाग़ मेरा, आ अगर हरा है तू
____________________
दिलीप शाक्य
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें